बुधवार, 16 फ़रवरी 2022

सुनहरी यादें :

ये ज़िन्दगी भी कितनी" अन्प्रेडिकटेबल" होती है...हैना? अगले ही पल किसके साथ क्या होने वाला है कुछ नहीं पता...

सच कहें तो हमें लगता है ज़िन्दगी का ये"अन्प्रेडिकटेबल" होना इसे और भी खूबसूरत बना देता है...

ज़िन्दगी के प्रतिएक आकर्षण, एक रोमांच बना रहता है...
अगर हमें अपने आने वाले कल के बारे में पता हो तो उसकी चिंता में शायद हम अपने आज को भी ठीक से ना जी पायें...

वैसे भी आज ज़िन्दगी के लिये तमाम सुख सुविधाएं जुटाने की जद्दो जहद में हम अपनी ज़िन्दगी को जी ना ही
भूल गए हैं,
जो हर गुज़रते पल के साथ कम होती जा रही है,
हम से दूर होती जा रही है...

पैसों से खरीदे हुए ये बनावटी साज-ओ-सामान हमें सिर्फ़ चंद पलों का आराम दे सकते हैं पर दिल का सुकून नहीं...

इसलिए भाग-दौड़ भरी इस ज़िन्दगी से आइये अपने लिये कुछ लम्हें चुरालें...

कुछ सुकून के पल जी लें...
उनके साथ जो
हमारे अपने हैं...

आज हम यहाँ है कल पता नहीं कहाँ हों...
आज जो लोग हमारे साथ हैं कल शायद वो साथ हों ना हों और हों भी तो शायद इतनी घनिष्टता होना हो...क्या पता...

इसीलिए आइये ज़िन्दगी का हर कतरा जी भर के जी लें...
ये ज़िन्दगी हमें बहुत कुछ देती है,
रिश्ते-नाते,

प्यार-दोस्ती,. कुछ हँसी,
कुछ आँसू,
कुछ सुख और कुछ दुःख...

कुल मिला कर सही मायनों में हर किसी की ज़िन्दगी की यही जमा पूंजी है...

ये सुख दुःख का ताना-बाना मिल कर ही हमारी ज़िन्दगी की चादर बुनते हैं,
किसी एक के बिना दूसरे की एहमियत का शायद अंदाजा भी ना लग पाए...

अभी हाल ही में हुए जयपुर के हादसे ने हमें सोचने पे मजबूर कर दिया...

सोचा कि इस हादसे ने ना जाने कितने लोगों कि ज़िन्दगी अस्त-व्यस्त कर दी,

कितने लोगों को इस हादसे ने उनके अपनों से हमेशा हमेशा के लिये जुदा कर दिया और ना जाने कितने लोगों को ये हादसा कभी ना भर सकने वाले ज़ख्म दे गया...

पर इस हादसे को बीते अभी चंद दिन ही हुए हैं...
आग अभी पूरी तरह बुझी भी नहीं है और ये हादसा अखबारों और न्यूज़ चैनल्स कि सुर्खियों से गुज़रता हुआ अब सिर्फ़ एक छोटी ख़बर बन कर रह गया है...

शायद यही ज़िन्दगी है...
कभी ना रुकने वाली...
वक़्त का हाथ थामे निरंतर आगे बढ़ती रहती है...

जो ज़ख्म मिले वो समय के साथ भर जाते हैं और जो खुशियाँ मिलीं वो मीठी यादें बनकर हमेशा ज़हन में ज़िंदा रहती हैं...

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2022

मॉडर्न आर्ट की एक तस्वीर भर है ज़िन्दगी...

बहुत दिन हुए कुछ लिखा नहीं,
वो अक्सर पूछा करती है नया कब लिख रहे हो...

मेरे पास कोई जवाब नहीं होता..
आखिर क्या कहूं,
कितनी कोशिश तो करता हूँ लेकिन गीले कागज पर लिखना आसान नहीं होता...

और वो स्याही वाली कलम तुमने ही तो दी थी न, उसकी लिखावट बहुत जल्द धुंधली पड़ जाती है...

लेकिन वो ये बात नहीं समझती,
और हर रोज यही सवाल पूछती है...

जानती हो उसने कितनी बार ही कहा तुम्हें भूल जाने को,
शायद उसे मेरे चेहरे पर ये उदासी अच्छी नहीं लगती...

लेकिन तुम्हारे आने और लौट जाने के बीच मेरे वजूद का एक टुकड़ा गिर गया था कहीं,
वो कमबख्त उठता ही नहीं बहुत भारी है...

क्या ऐसा मेरे साथ ही होता है कि जो इस पल साथ होता है वो अगले पल नहीं होता...

मैं अब अजीब सी कश्मकश में हूँ, पहले जो शाम काटे नहीं कटती थी...

नुकीले चाकू की तरह मुझे चीरने की कोशिश करती थी,
अब वो फिर से तितली के पंखों की तरह चंचल हो गयी है...

जो शाम तुम्हारे यादों के संग गुज़रती थी उसे अब उसने अपनी खिलखिलाहट से भर दिया है...
पता नहीं कैसे...

जो कुछ भी मैंने कहीं अपनी सबसे भीतरी तह के नीचे छुपा कर रख दिया था,
उसे नीले आकाश की उड़ान भरते देख रहा हूँ...

क्या ये वही शहर है जहाँ चाँद ने उगना छोड़ दिया था,
कल रात देखा तो चाँद ज़मीन पर उतर आया था...

कितनी बार उसने मुझसे पुछा कि मैं जो तुम्हारे बारे में इतना कुछ लिखता हूँ तुम्हें इसकी कद्र भी है या नहीं,
और मैं यही फैसला नहीं कर पाता कि ये मैं तुम्हारे काल्पनिक अस्तित्व के लिए लिखता हूँ या अपनी संतुष्टि के लिए या फिर कलम खुद-ब-खुद अपनी मंजिल ढूँढ लेती है...

इन सभी उधेड़ बुनों के बीच एक और ख्याल है जो मुझे बेचैन कर जाता है,
जबकि उसे पता है मैं उसका नहीं हो सकता, फिर भी हर शाम वो मेरे पास आती है...

ये ज़िन्दगी उस मॉडर्न आर्ट पेंटिंग की तरह होती जा रही है जिसे सिर्फ वही समझ सकता है जिसने उसे बनाया है...

मुझे तलाश है बस अपने उस कलाकार की जिसकी बनाई तस्वीर में उलझा हुआ हूँ,
ये मॉडर्न आर्ट बनाने वाले तस्वीरों पर अपना नाम भी कम ही लिखते हैं...

रविवार, 6 फ़रवरी 2022

तू इस तरह से मेरी ज़िंदगी में शामिल है....

कभी अचानक से सुबह जल्दी नींद खुल जाये तो मैं चौंक कर इधर-उधर देखने लग जाता हूँ....
 तुम्हारे होने की हल्की सी खुशबू फैली होती है चारो तरफ..... 
जैसे चुपके से आकर मेरे ख्वाबों को चूमकर चली गयी हो.... 
आधी -चौथाई या फिर रत्ती भर भी, 
अब तो जो भी ज़िंदगी महफूज बची है बस यूं ही गुज़रेगी तुम्हारे होने के बीच....
वक़्त के दरख़्त पेमायूसियों की टहनी के बीच कुछ पतझड़ तन्हाईयों के भी थे,
पर इस गुमशुदा दिसंबर में उम्मीद की लकीरों और ओस की नमी के पीछे दिखती तुम्हारी भींगी मुस्कान…
दिसंबर की सर्दियों के ख्वाब भी गुनगुने से होते हैं,
रजाईयों में दुबके हुए से,
उसमे से कुछ ख़्वाब फिसल कर धरती की सबसे ऊंची चोटी पर पहुँच गए हैं,उस चोटी से और ऊपर, बसता है ढाई आखर का इश्क अपना..