बुधवार, 27 जुलाई 2022

मैजिशियन

दोपहर बीत चली थी लेकिन बारिश थी
कि रुकने का नाम नहीं ले रही थी. लड़का
अपने कमरे में बैठे बारिश के रुकने की
प्रतीक्षा कर रहा था. दो दिन से तेज़
ज़ुकाम और हलके बुखार की वजह से वो घर में
कैद था और इन दो दिनों से लगातार
बारिश हो रही थी. अपने बालकनी में बैठे
बारिश की बूँदों को देख वो सोच रहा
था कि कभी जनवरी की बारिश कितनी
ख़ास होती थी लेकिन अब तो जैसे जनवरी
की बारिश भी कोई मायने नहीं रखती.
पिछले कुछ सालों में बहुत कुछ बदल गया था.
कई यकीन, कई सपनें टूट गए थे. एक के बाद एक
उसे अपनी हर नाकामी याद आ रही थी.
दिन में कई बार उसने सोचा कि घर पर बात
कर ले, लेकिन वो जानता था कि घर पर
उसकी हलकी बिमारी की खबर भी सबको
बेचैन कर देती है. अपने घरवालों को वो अब
और कोई तकलीफ नहीं देना चाहता था.
वो उस लड़की से भी बात करना चाहता
था जो उसके सुख दुःख की साथी थी.
लड़के के माँ-बाप, छोटे भाई और बहन के
अलावा पूरे दुनिया में एक वही तो थी जो
उसकी हर बात समझती थी. लेकिन जाने
किस हिचक से या अनजाने डर से वो उसे
फोन नहीं कर पाया था.
दो दिन पहले उसकी लड़की से बात हुई थी
और तब लड़की का मन बेहद अशांत था.
लड़की के परिवार में उन दोनों को लेकर खूब
हंगामा हुआ था. लड़की उस रात फोन पर
बहुत देर तक रोती रही थी और बस यही
दोहराते रही थी – “आई विल डाई
विदआउट यू....एंड आई मीन इट!” पूरे दिन लड़के
के मन में भी बस यही पाँच शब्द घूमते रहे थे जो
लड़की ने दो रात पहले कहे थे और जिन्हें वो
तोड़ मरोड़ के पूरे दिन दोहराता रहा
था...आई विल डाई.....विदआउट
यू.....विदआउट यू...आई विल डाई.
शाम होते होते लड़के को उसका अकेलापन,
उसकी नाकामी और लड़की के कहे शब्द इस
कदर बेचैन करने लगे कि घर में और रुकना संभव न
हो सका. वो बारिश में ही घर से बाहर
निकल आया था. बारिश में भीगता हुआ
वो सड़कें पार करने लगा. एक जगह से दुसरे जगह
वो घूमता रहा. घर से बाहर, सड़कों पर उसे ये
तसल्ली थी कि वो अकेला नहीं है. बहुत से
लोगों के बीच में वो भी एक है. देर रात तक
वो उन भीड़ भरी सड़कों पर इधर उधर
निरुद्देश्य घूमता रहा और जब घर लौटा तो
ठण्ड से उसका शरीर काँप रहा था.
कमजोरी और थकान इस कदर हावी हो
गयी थी उसपर कि वो बिना कुछ खाए सो
गया.
सुबह जब आँख खुली उसकी, तो उसका पूरा
शरीर बुखार से तप रहा था. उसमें इतनी
ताकत भी नहीं बची थी कि बिस्तर से उठ
कर वो पानी तक पी सके. शाम के अपने
पागलपन के लिए वो खुद को कोसने लगा
था. रात सड़कों पर घुमने से कुछ देर के लिए
जिस अकेलेपन से उसे छुटकारा मिला था
उस अकेलेपन ने उसे फिर से जकड़ लिया था.
दिन भर के बुरे ख्याल फिर से आने लगे थे. वो
ये सोचते ही काँप गया कि इस शहर में वो
अकेला है..बिलकुल अकेला. उसे अगर कुछ हो
भी जाए तो भी उसकी मदद करने कोई नहीं
आने वाला.
उसे अपने एक चाचा की याद आने लगी, जो
काफी साल पहले इस दुनिया से जा चुके थे.
तब वो काफी छोटा था. उसे बहुत दिनों
तक ये लगता रहा था कि चाचा की मौत
बुखार से नहीं बल्कि अकेले रहने से हुई थी. वो
भी लड़के की तरह अकेले रहते थे. उसने सोचा जो लोग
अकेले कमरे में मरते हैं वो कितने बदनसीब होते
हैं कि आखिरी वक़्त कोई भी उनके पास
नहीं होता. ये सोचते ही वो एकदम
आतंकित सा हो गया. अकेलेपन के बारे में तो
लड़के ने पहले भी कई बार सोचा था लेकिन
मौत के बारे में उस दिन उसने पहली बार
सोचा था.
सामने टेबल पर रखी लड़की की तस्वीर पर
उसकी नज़र गयी तो उसे याद आया पहले जब
कभी ऐसी बातें वो मजाक में भी लड़की
को कह देता तो वो उससे रूठ जाया करती
थी. वो तो शायरी और कविताओं में भी
मौत जैसे शब्दों को झेल नहीं पाती थी और
चिढ़ कर कहती कि ऐसे नेगटिव शब्दों का
इस्तेमाल करने वाले कवि और शायरों को
जेल में बंद कर देना चाहिए. पॉजिटिव
थिंकिंग की वो खुद को एक मिसाल
समझती थी. ऐसा था भी. फुल ऑफ़ लाइफ
लड़की थी वो. लेकिन वही फुल ऑफ़ लाइफ
लड़की ने उससे कहा था “आई विल डाई
विदआउट यू”.
लड़के को बहुत पहले का एक दिन भी याद
आया जब वो बहुत बीमार था और लड़कीमजाक में कहा था “ये
बुखार तो मेरी जान ले लेगी”. ये सुनते ही
लड़की ने उसे दो तीन मुक्के जड़ दिए थे और
गुस्से में कहा था, ‘बीमार हो और तब भी
मार खाने की तुम्हारी तलब शांत नहीं
होती’. उस एक छोटे से मजाक से लड़की पूरे
दिन रूठी रही थी.
लड़के को अक्सर लगता था कि लड़की के
पास कोई जादू का पिटारा है. उस दिन
जब वो अपने घर में बीमार पड़ा था तब
लड़की ने इरिटेट होकर कहा था, "कितने
प्लान बनाये थे हमनें आज के लिए और तुम
बिस्तर पर पड़े हो...रुको मैं तुम्हें ठीक करने
का कुछ उपाय करती हूँ". लड़के को इस बात
पर हँसी आ गयी थी.. “तुम क्या करोगी?
तुम कोई डॉक्टर थोड़े हो?” लड़के ने कहा.
लड़की फिर बेपरवाह ढंग से हँसते हुए कहने
लगी.. “मैं डॉक्टर नहीं...मैजिशियन
हूँ....मैजिशियन. मैं वो भी कर सकती हूँ जो
डॉक्टर्स नहीं कर सकते...”
ये कहते हुए उसने लड़के के माथे और गालों को
ऐसे सहलाया जैसे वो कोई फ़रिश्ता हो
और उसके बस छू लेने से कोई चमत्कार होगा
और लड़के की बीमारी गायब हो जायेगी.
उस वक्त लेकिन लड़के को सही में ऐसा महसूस
हुआ कि जैसे लड़की की हाथों की
मसीहाई धीरे धीरे उसके समूचे शरीर में उतर
रही है और वो अब ठीक है. उसे उस दिन ये
यकीन था कि उसका बुखार दवा खाने की
वजह से नहीं बल्कि उस लड़की की वजह से
उतरा था.
शायद टेलीपैथी जैसी कोई चीज़ होती
जरूर है. लड़का अपनी उस मैजिशियन को
याद कर ही रहा था कि तभी फोन की
घंटी सुनाई दी. लड़के ने हड़बड़ा के अपना
मोबाइल देखा. लेकिन मोबाइल खामोश
था, उसपर कोई कॉल नहीं था.. लड़के की
नज़र सामने खुले लैपटॉप पर गयी तो वो चौंक
गया. लैपटॉप पर लड़की का विडियो
कॉल आ रहा था.
लड़के को याद आया कि हमेशा की तरह
रात में वो लैपटॉप बंद करना भूल गया था
और विडियो चैट का एप्लीकेसन लॉग इन
था. लड़की दुसरे टाइम जोन के शहर में रहती
थी. जब लड़के के शहर में सुबह होती तो
लड़की के शहर में रात. लड़की अक्सर इस वक़्त
लड़के को विडियो कॉल करती थी.
विडियो कॉल से दोनों को तसल्ली
रहती कि वो दोनों दूर नहीं हैं. लड़की
कहती लड़के से कि तुम्हें देखकर सोती हूँ तो
मुझे बड़ी अच्छी नींद आती है और लड़का
कहता, कि तुम्हें सुबह देख लेता हूँ तो मेरा
दिन बहुत अच्छा हो जाता है.
लैपटॉप पर लड़की का कॉल देखकर लड़का
असमंजस में पड़ गया कि वो क्या करे? वो ये
नहीं चाहता था कि लड़की उसे इस हालत
में देखे. उसने सोचा कि वो कॉल रिसीव न
करे और बाद में बहाना बना दे कि वो सो
रहा था. लेकिन लड़की लगातार कॉल कर
रही थी. वो जानता था कि उसने बहाना
बनाया तो लड़की उसका झूठ ताड़
जायेगी. खुद को थोड़ा संभाल कर, हिम्मत
जुटा कर उसने कॉल रिसीव किया.
लड़के ने पूरी कोशिश की थी कि वो
अपना हाल छुपा ले, लेकिन उसकी एक झलक
से ही लड़की ने सब समझ लिया था. दो
दिनों से लड़की वैसे ही परेशान थी और अब
लड़के की ऐसी हालात देख कर वो एकदम टूट
गयी. लड़की को ये समझते देर न लगी कि दो
दिन पहले उसने जो डिप्रेसिंग बातें की थी,
उस वजह से लड़के की ऐसी हालत हुई है.
हालाँकि लड़के ने उसे खूब समझाने की
कोशिश की कि वो गलत सोच रही है और
बारिश में भीग जाने की वजह से उसे बुखार
चढ़ आया था. लड़की लेकिन जानती थी
कि बुखार में जहाँ अधिकतर लोग बिस्तर पर
पड़े रहते हैं वहीँ लड़का आराम से घूमते रहता
था.
लड़की कहती नहीं थी लेकिन लड़के के
अकेलेपन को वो अच्छे से समझती थी..तभी
तो वो दो दिन से इस गिल्ट में रही कि उसे
लड़के से ऐसा नहीं कहना चाहिए था. वो
जानती थी कि ऐसी बातों को लड़का
काफी गंभीरता से ले लेता है और फिर
अक्सर उसकी तबियत बिगड़ जाती है.
लड़की ने धीमी आवाज़ में लड़के से कहा
"सुनो, मुझे वो सब नहीं कहना चाहिए था".
लड़के ने लड़की को फिर तसल्ली देनी चाही
कि वो गलत सोच रही है और उसकी बातों
का उसपर कोई असर नहीं हुआ था.
लड़की लेकिन इस बार थोड़ी उखड़ सी गयी
"तुम क्या सोचते हो कि मैं कुछ नहीं
जानती..सब जानती हूँ मैं कि कौन सी
बातें तुमपर कैसे असर करती हैं. तुम कैसे रहते
हो...वो भी जानती हूँ मैं. लेकिन सुनो...ऐसे
जिया नहीं जाता..इतनी तकलीफ किस
लिए? मैं नहीं जानती कि तुम अक्सर पूरी
पूरी शाम सड़कों पर बस इसलिए बिता देते
हो ताकि घर के अकेलेपन और सूनेपन से बचे
रहो. तुम ये सब क्यों सहते हो? सुनो..तुम
वापस अपने घर क्यों नहीं चले जाते..कम से
कम मुझे तसल्ली रहेगी. वरना जब तक ऐसे
रहोगे मैं भी चैन से नहीं रह पाऊँगी.." कहते
हुए लड़की का गला रुंध आया था.
लड़के की आँखें भी भींग आई थी. वो
जानता था कि लड़की उसकी फ़िक्र
करती है. वो नहीं चाहता था कि लड़की
उसकी तकलीफों से परेशान हो इसलिए वो
जान बूझकर लड़की से कुछ भी नहीं कहता
था. लड़की लेकिन फिर भी समझ समझ
जाती थी. ऐसे समय में लड़का हमेशा चुप हो
जाया करता था और लड़की असहाय सा
महसूस करती कि वो लड़के के पास नहीं है.
लड़की को लड़के की बीमारी कि उतनी
चिंता नहीं होती थी, वो जानती थी
कि लड़का खुद का ख्याल रख सकता है.
लेकिन लड़के को जब भी यूँ अकेलेपन का
एहसास होता, बुरे ख्याल जब भी लड़के को
परेशान करते तो लड़की को हमेशा लगता
कि काश वो उसके पास, उसके साथी
होती.
लड़की बार बार अपनी उँगलियों को
वेबकाम तक ले जा रही थी. वो लड़के को
छूना चाहती थी. पागल थी वो. बहुत पहले
कभी किसी दिन पार्क में बैठे हुए उसनें लड़के
की हथेलियों को खुद की हथेलियों से
लॉक कर लिया था और अपना दुपट्टा लपेट
दिया था इस उम्मीद के साथ कि दोनों के
हाथ हमेशा के लिए जुड़ जायेंगे और जब उसने
दुपट्टा हटाया और हथेलियाँ अलग हो गयी
तो वो उदास हो गयी थी..और आज वो
चाह रही थी कि किसी तरह कोई
चमत्कार हो जाए और वो इस वेबकैम से हाथ
निकाल ककर लड़के को छू सके.
हर बार जब वो अपने इस पागलपन में असफल
हो रही थी, इरिटेट होकर लड़के से कहने
लगी “सुना है किसी सॉफ्टवेर इंजिनियर ने
अपनी गर्लफ्रेंड को ढूँढने के लिए एक सोशल
नेटवर्किंग साईट ही बना दी थी.तुम भी मेरे
लिए कोई ऐसी तकनीक का अविष्कार
क्यों नहीं कर देते कि मैं जब चाहूँ तुम्हारे
पास पहुँच सकूँ.?
वो ऐसी सिचुएशन तो नहीं थी कि लड़के
को हँसी आये लेकिन लड़की की इस प्यारी
नादानी पर उसकी हँसी छुट गयी.."मैं
उतना क्वालफाइड नहीं हूँ. तुम कोशिश
करो. इंजीनियरिंग की डिग्री तो तुम्हारे
पास भी है.."
लड़के के ऐसे हलके फुल्के मजाक से लड़की अन्दर
ही अन्दर खुश हुई, लेकिन चेहरे पर नकली
गुस्सा दिखाते हुए उसनें लड़के को डांटा..
"तुम्हें तो अच्छा लगता है न मुझे यूँ परेशान
होता देखकर? तभी तो हँस रहे हो. खुद अकेले
रहकर बेवजह की बातें सोचते हो और मुझे
उदास कर देते हो. पता है तुम्हें आज माँ के
बर्थडे की पार्टी थी और सजने-सँवरने में मुझे
पूरे दो घंटे लगे थे. सबने कितना कॉम्प्लीमेंट
भी दिया कि बहुत सुन्दर दिख रही हूँ और
तुमनें रुलाकर देखो सब बर्बाद कर दिया.
सोचा था तुम्हें आकर अपनी ये नयी साड़ी
दिखंगी. तुमसे परसों रात के लिए माफ़ी
भी तो मांगनी थी...लेकिन तुम..तुम तो खुद
की ऐसी हालत बनाये हुए हो कि क्या कहूँ
मैं?और अब हँस रहे हो? बेशर्म कहीं के..
बीमार हालत में भी लड़का हड़बड़ा गया.
वो तुरंत माफी माँगने के मोड में आ गया.
“अच्छा चलो माफ़ कर दो और ये गुस्सा
छोड़ो.अब नहीं सोचूँगा ऐसा वैसा कुछ
भी. अब बस तुम्हारे बारे में सोचूँगा...ठीक?
देखो तुम आज कितनी प्यारी लग रही
हो..ये नाराज़गी तुम्हारे इस प्यारे चेहरे पर
बिलकुल सूट नहीं करती.” लड़के ने लड़की को
मनाने की पूरी कोशिश की. लड़की लेकिन
उसे इतनी आसानी से माफ़ करने के मूड में नहीं
थी. अपनी बड़ी बड़ी आँखों को और बड़ा
कर के वेबकैम के एकदम नज़दीक अपने चेहरे को
लाकर उसने गुस्से में कहा "ना..मत सोचो मेरे
बारे में.. तुम्हें तो मुझसे नहीं, अकेलेपन से प्यार
है न...और नहीं चाहिए मुझे तुम्हारी
तारीफ़. .तुमने तो कसम खा रखी है न कि
बिना मुझसे डांट सुने मेरी तारीफ़ नहीं
करोगे...अभी भी और डांट सुनने का इरादा
है या चुपचाप दवा खाओगे मेरे सामने?
जानती हूँ मैं कि तुमनें दवा नहीं खायी
होगी अब तक".
लड़का मुस्कुराने लगा. थोड़ा फ़िल्मी होते
हुए उसने कहा “मुझे वैसे दवा खाने की अब
क्या जरूरत? तुम जो हो मेरे सामने...देखना
मेरी मैजिशियन सब ठीक कर देगी. ये बुखार
कहाँ टिक पायेगा मेरी मैजिशियन के
सामने? है न? देखना डर के भाग जाएगा
बुखार”. लड़की के गुस्से वाले चेहरे पर अब
हलकी मुस्कान उभर आई थी..अपने बारे में
ऐसी बातें सुनकर वैसे भी उसका चेहरा एकदम
खिल जाता था. फिर भी ऐटिटूड दिखाते
हुए उसने कहा “मस्का लगा रहे हो मुझे?”
“हाँ बिलकुल...तुम्हें तो मस्का बहुत पसंद है
न?” लड़के ने उसे छेड़ते हुए कहा.
“हुहं...व्हाटेवर......” लड़की ने कन्धों को
उचकाकर, लड़के के सवाल को गोल कर
दिया.
लड़के को लगा जैसे उसके सामने फिर से
उसकी वही पुरानी दोस्त खड़ी है जो बात
बे बात पर गुस्सा हो जाया करती थी और
लड़के को उसे मनाने के लिए फिर कितने जतन
करने पड़ते थे. लड़के को लगा जैसे दो दिन का
सारा बोझिलपन, अकेलापन और उसके अंदर
का भारीपन धीरे पिघलने लगा है. उदासी
के बादल उसके चेहरे से तो लड़की को देखते ही
छटने शुरू हो गए थे, लेकिन अब उसे लगा जैसे
उसकी तबियत भी ठीक है और वो हल्का
महसूस कर रहा है. उसे लगा कि ये लड़की सच
में उसकी मैजिशियन है जो सब कुछ ठीक कर
देती है...

बुधवार, 16 फ़रवरी 2022

सुनहरी यादें :

ये ज़िन्दगी भी कितनी" अन्प्रेडिकटेबल" होती है...हैना? अगले ही पल किसके साथ क्या होने वाला है कुछ नहीं पता...

सच कहें तो हमें लगता है ज़िन्दगी का ये"अन्प्रेडिकटेबल" होना इसे और भी खूबसूरत बना देता है...

ज़िन्दगी के प्रतिएक आकर्षण, एक रोमांच बना रहता है...
अगर हमें अपने आने वाले कल के बारे में पता हो तो उसकी चिंता में शायद हम अपने आज को भी ठीक से ना जी पायें...

वैसे भी आज ज़िन्दगी के लिये तमाम सुख सुविधाएं जुटाने की जद्दो जहद में हम अपनी ज़िन्दगी को जी ना ही
भूल गए हैं,
जो हर गुज़रते पल के साथ कम होती जा रही है,
हम से दूर होती जा रही है...

पैसों से खरीदे हुए ये बनावटी साज-ओ-सामान हमें सिर्फ़ चंद पलों का आराम दे सकते हैं पर दिल का सुकून नहीं...

इसलिए भाग-दौड़ भरी इस ज़िन्दगी से आइये अपने लिये कुछ लम्हें चुरालें...

कुछ सुकून के पल जी लें...
उनके साथ जो
हमारे अपने हैं...

आज हम यहाँ है कल पता नहीं कहाँ हों...
आज जो लोग हमारे साथ हैं कल शायद वो साथ हों ना हों और हों भी तो शायद इतनी घनिष्टता होना हो...क्या पता...

इसीलिए आइये ज़िन्दगी का हर कतरा जी भर के जी लें...
ये ज़िन्दगी हमें बहुत कुछ देती है,
रिश्ते-नाते,

प्यार-दोस्ती,. कुछ हँसी,
कुछ आँसू,
कुछ सुख और कुछ दुःख...

कुल मिला कर सही मायनों में हर किसी की ज़िन्दगी की यही जमा पूंजी है...

ये सुख दुःख का ताना-बाना मिल कर ही हमारी ज़िन्दगी की चादर बुनते हैं,
किसी एक के बिना दूसरे की एहमियत का शायद अंदाजा भी ना लग पाए...

अभी हाल ही में हुए जयपुर के हादसे ने हमें सोचने पे मजबूर कर दिया...

सोचा कि इस हादसे ने ना जाने कितने लोगों कि ज़िन्दगी अस्त-व्यस्त कर दी,

कितने लोगों को इस हादसे ने उनके अपनों से हमेशा हमेशा के लिये जुदा कर दिया और ना जाने कितने लोगों को ये हादसा कभी ना भर सकने वाले ज़ख्म दे गया...

पर इस हादसे को बीते अभी चंद दिन ही हुए हैं...
आग अभी पूरी तरह बुझी भी नहीं है और ये हादसा अखबारों और न्यूज़ चैनल्स कि सुर्खियों से गुज़रता हुआ अब सिर्फ़ एक छोटी ख़बर बन कर रह गया है...

शायद यही ज़िन्दगी है...
कभी ना रुकने वाली...
वक़्त का हाथ थामे निरंतर आगे बढ़ती रहती है...

जो ज़ख्म मिले वो समय के साथ भर जाते हैं और जो खुशियाँ मिलीं वो मीठी यादें बनकर हमेशा ज़हन में ज़िंदा रहती हैं...

शुक्रवार, 11 फ़रवरी 2022

मॉडर्न आर्ट की एक तस्वीर भर है ज़िन्दगी...

बहुत दिन हुए कुछ लिखा नहीं,
वो अक्सर पूछा करती है नया कब लिख रहे हो...

मेरे पास कोई जवाब नहीं होता..
आखिर क्या कहूं,
कितनी कोशिश तो करता हूँ लेकिन गीले कागज पर लिखना आसान नहीं होता...

और वो स्याही वाली कलम तुमने ही तो दी थी न, उसकी लिखावट बहुत जल्द धुंधली पड़ जाती है...

लेकिन वो ये बात नहीं समझती,
और हर रोज यही सवाल पूछती है...

जानती हो उसने कितनी बार ही कहा तुम्हें भूल जाने को,
शायद उसे मेरे चेहरे पर ये उदासी अच्छी नहीं लगती...

लेकिन तुम्हारे आने और लौट जाने के बीच मेरे वजूद का एक टुकड़ा गिर गया था कहीं,
वो कमबख्त उठता ही नहीं बहुत भारी है...

क्या ऐसा मेरे साथ ही होता है कि जो इस पल साथ होता है वो अगले पल नहीं होता...

मैं अब अजीब सी कश्मकश में हूँ, पहले जो शाम काटे नहीं कटती थी...

नुकीले चाकू की तरह मुझे चीरने की कोशिश करती थी,
अब वो फिर से तितली के पंखों की तरह चंचल हो गयी है...

जो शाम तुम्हारे यादों के संग गुज़रती थी उसे अब उसने अपनी खिलखिलाहट से भर दिया है...
पता नहीं कैसे...

जो कुछ भी मैंने कहीं अपनी सबसे भीतरी तह के नीचे छुपा कर रख दिया था,
उसे नीले आकाश की उड़ान भरते देख रहा हूँ...

क्या ये वही शहर है जहाँ चाँद ने उगना छोड़ दिया था,
कल रात देखा तो चाँद ज़मीन पर उतर आया था...

कितनी बार उसने मुझसे पुछा कि मैं जो तुम्हारे बारे में इतना कुछ लिखता हूँ तुम्हें इसकी कद्र भी है या नहीं,
और मैं यही फैसला नहीं कर पाता कि ये मैं तुम्हारे काल्पनिक अस्तित्व के लिए लिखता हूँ या अपनी संतुष्टि के लिए या फिर कलम खुद-ब-खुद अपनी मंजिल ढूँढ लेती है...

इन सभी उधेड़ बुनों के बीच एक और ख्याल है जो मुझे बेचैन कर जाता है,
जबकि उसे पता है मैं उसका नहीं हो सकता, फिर भी हर शाम वो मेरे पास आती है...

ये ज़िन्दगी उस मॉडर्न आर्ट पेंटिंग की तरह होती जा रही है जिसे सिर्फ वही समझ सकता है जिसने उसे बनाया है...

मुझे तलाश है बस अपने उस कलाकार की जिसकी बनाई तस्वीर में उलझा हुआ हूँ,
ये मॉडर्न आर्ट बनाने वाले तस्वीरों पर अपना नाम भी कम ही लिखते हैं...

रविवार, 6 फ़रवरी 2022

तू इस तरह से मेरी ज़िंदगी में शामिल है....

कभी अचानक से सुबह जल्दी नींद खुल जाये तो मैं चौंक कर इधर-उधर देखने लग जाता हूँ....
 तुम्हारे होने की हल्की सी खुशबू फैली होती है चारो तरफ..... 
जैसे चुपके से आकर मेरे ख्वाबों को चूमकर चली गयी हो.... 
आधी -चौथाई या फिर रत्ती भर भी, 
अब तो जो भी ज़िंदगी महफूज बची है बस यूं ही गुज़रेगी तुम्हारे होने के बीच....
वक़्त के दरख़्त पेमायूसियों की टहनी के बीच कुछ पतझड़ तन्हाईयों के भी थे,
पर इस गुमशुदा दिसंबर में उम्मीद की लकीरों और ओस की नमी के पीछे दिखती तुम्हारी भींगी मुस्कान…
दिसंबर की सर्दियों के ख्वाब भी गुनगुने से होते हैं,
रजाईयों में दुबके हुए से,
उसमे से कुछ ख़्वाब फिसल कर धरती की सबसे ऊंची चोटी पर पहुँच गए हैं,उस चोटी से और ऊपर, बसता है ढाई आखर का इश्क अपना..

मंगलवार, 5 सितंबर 2017

सायद, रद्दी जलाने के लिए ही होती है...

लिखना कभी भी मेरी प्राथमिकता नहीं रही है,
   मैं तो ढेर सारे लोगों से मिलना चाहता हूँ,
उनसे बातें करना चाहता हूँ...

उनके साथ नयी नयी जगहों पर जाना चाहता हूँ..
लेकिन जब कोई आस-पास नहीं होता तो बेबसी में कलम उठानी पड़ती है...
ये कागज के टुकड़े जिनपर मैं कुछ भी लिख कर भूल जाता हूँ,
मुझे बहुत बेजान दिखाई देते हैं...

जब मैं खुश होता हूँ तो वो मेरे गले नहीं मिलते,
जब आंसू की बूँदें बिखरना चाहती हैं ये कभी भी मुझे दिलासा नहीं दिलाते...
जो कुछ भी लिखता हूँ वो बस मेरा एकालाप है, जिसका मोल तभी तक है जब तक उसको लिख रहा हूँ...
उसके बाद वो मेरे किसी कामके नहीं...ऐसा लगता है जैसे डायरी लिखना मेरे लिए ज़िन्दगी से किया गया एक समझौता है...
जितनी ही बार कुछ लिखने की कोशिश की है उतनी ही बार खुद की हालत पे रोना आया है...

वो ऐसा वक्त होता है जब आसपास तन्हाईयाँ होती हैं,
जब सन्नाटे की आवाज़ कानो के परदे फाड़ डालना चाहती है,
एक अकेलापन जिससे मैं भागना चाहता हूँ...

ऐसे में खुद-ब-खुद कलम हाथ में आ जाती है... उस वक्त मैं अपने हाथ में कागज़ और कलम की छुअन महसूस करता हूँ,
शायद कुछ देर के लिए ही सही लेकिन उस एहसास में खुद के अकेलेपन को भूल जाता हूँ...
अकेला होना या खुद को अकेला महसूस करना इस बात पर निर्भर करता है कि आपकी ज़िन्दगी में कितने ऐसे दोस्त हैं जो वक्त-बेवक्त आपके पास चले आते हैं और वो सब कुछ जानना चाहते हैं जो कहीं न कहीं कोने में दबा बैठा है...

कितने लोग आपकी ज़िन्दगी में वो हक़ जता पाते हैं कि आपकी हर खुशियों को अपने ख़ुशी समझें और हर गम को अपना गम...

हर किसी की ज़िन्दगी में कुछ शख्स होते हैं जिनके बस साथ होने से आपको एक सुकून सा महसूस होता है...
दोस्ती का रिश्ता सबसे खूबसूरत सा रिश्ता है शायद,
जहाँ आप बिना कुछ सोचे बिना किसी झिझक के अपने मन की सारी बातेंकर सकते हैं...
दोस्ती से ज्यादा वाला रिश्ता तो कोई हो नहीं सकता लेकिन आज की इस भागदौड़ भरी ज़िन्दगी में कब दोस्त आगे बढ़ जाते हैं पता ही नहीं चलता...
कई बार ऐसा होता है कि जब आप ज़िन्दगी के किसी नाज़ुक दौर से गुज़र रहे हों और वो दोस्त आपके साथ नहीं होते...
खैर बात हो रही है इस रद्दी की जो मैं यूँ ही ज़मा करता जा रहा हूँ,
बीच बीच में कितनी ही बार इस रद्दी से दिखने वाले पन्नों को ज़ला दिया है मैंने, क्यूंकि ये मुझे किसी काम के नहीं लगते....वहां से मेरा अतीत झांकता है,
एक ऐसा अतीत जहाँ बहुत कम चीजें हैं याद रखने लायक... जो चीजें बीत गयीं उनको क्या याद रखना, उनको क्या पढना...
मेरा यूँ रह रह के डायरीजला देना कुछ लोगों को अच्छा नहीं लगता, लेकिन उनको समझाना बहुत मुश्किल है मेरे लिए...
मैं यूँ बिखरे हुए अतीत के कचरे के बीच नहीं रह सकता...
घुटन होती है, खुद पे गुस्सा आता है... जो बहुत ज्यादा अच्छी या बुरी बातें हैं वो तो पहले ही दिमाग और दिल की जड़ों में चस्प हो गयी हैं...

काश वहां से भी निकाल के फेक पाता उन बातों को...मुझे ये डायरी नहीं उन लोगों का साथ चाहिए जिनसे मैं बेइन्तहां  मोहब्बत करता हूँ...

अगर हो सके तो मुझे बस वो अपनापन चाहिए जिसके बिना किसी का भी जीना या जीने के बारे में सोचना भी बस एक समझौता है...

शनिवार, 11 फ़रवरी 2017

वो लम्हें जो याद न हों......

वो पहली बार,
जब माँ ने गले से लगाया,
वो लम्हा जब पापा ने गोद में उठाया,
वो पहली मासूम सी हँसी,
वो पहली नींद की झपकी,
दादी की प्यार भरी पप्पी,
वो पहले लड़खड़ाते से कदम,
वो अनबुझ पहेली सा बचपन...

ढेर सारे खिलौने, गुड्डों और गुड़ियों की दुनिया,
स्कूल में वो पहला दिन,
वो प्यारे पलछिन,
और भी ऐसा बहुत कुछ......

इस ज़िन्दगी की आपाधापी से,
इन वाहनों के शोर से,
कहीं दूर,
कहीं एकांत में,
आओ बैठें,
समेटे उन लम्हों को,
वो लम्हे जो बीत गए....वो लम्हें जो याद न हों......

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2017

ज़िंदगी...का तसव्वुर

मेरा लिखा पढ़ना और आपका यहाँ यूं होना  किसी संयोग से कम नहीं...

इस 7 अरब की दुनिया में आप मुझे ही  क्यूँ पढ़ना चाहते हैं,
ऐसा क्या है यहाँ...

यहाँ तो सबकी ज़िंदगी ही एक कहानी है,
अपनी कहानियों से इतर दूसरों की कहानियों में इतनी दिलचस्पी क्यूँ भला...

50 करोड़ स्क्वायर किलोमीटर की इस धरती पर मुश्किल से 20 स्क्वायर फीट की जगह घेरा एक इंसान कंप्यूटर पर बैठा कुछ खिटिर-पिटिर कर रहा है,
अपनी ज़िंदगी के पन्नों को उलट पुलट कर देख रहा है,
उसे इस इन्टरनेट की दीवार पर बैठे बैठे झांकना क्यूँ पसंद है आपको...

यहाँ तो आलम ये है कि मेरे घर का आईना भी मेरी शक्ल से ऊब सा गया लगता है,
दीवारों की सीलन भी आंसुओं के रंग में नहाई लगती है...

मेरे कमरे तक आने वाली सीढ़ियाँ हर रोज़ संकरी सी होती जाती हैं,
जैसे किसी दिन बस यहीं कैद कर लेंगी मुझे...

ज़िंदगी एक नदी है,
अपनी नाव उतार दीजिये...

अगर आपको लगता है मैं कुछ अच्छा लिखता हूँ या अलग लिखता हूँ तो ये आपका भ्रम मात्र है,

मैं यहाँ एक मुखौटा सा लगा कर बैठा हूँ....

इस ब्लॉग पर पड़ी एक परत सी है,
कभी जो हो सके तो इस परत को उघाड़ कर इसके अंदर बैठे मेरे स्वयं को देखने की कोशिश कीजिएगा....

मैं भी आपका ही अक्स हूँ जो आपकी ही तरह लड़ रहा है ज़िंदगी से,
कोयले की सिगड़ी पर ज़िंदगी को सेक कर कुछ लज़ीज़ बनाने की जुगत में है....

अब कहीं ऐसा न समझ लीजिएगा मैं किसी अवसाद में हूँ, मैं तो पूरी तरह से ज़िंदगी में हूँ... डूबा हुआ...

ज़ोर से सांस भी लेता हूँ तो ज़िंदगी दौड़ी मेरी बाहों में सिमट आती है...

ज़िंदगी को आप कसी ड्राफ्ट में सेव करके नहीं रख सकते,
किसी EMI स्कीम से खरीद नहीं सकते...

बस इसकी आँखों में आँखें डालकर इसका लुत्फ उठा सकते हैं....

किसी बच्चे का सीक्रेट झोला देखा है आपने कभी,
उसमे वो हर कुछ डालता जाता है जो उसे अलग लगती है,
सड़क के किनारे पड़े किसी गोल चिकने पत्थर को भी उसी मोहब्बत से देखता है जैसे उसी में उसकी ज़िंदगी बसी हो...

बस यही तो है हमारी-आपकी ये ज़िंदगी भी, जो भी पसंद आता समेटते जाते हैं,
कई चीजों का कोई मोल नहीं होता...

बस यूंही खुद की खुशी के लिए,
खुद के साथ के लिए....

अगर आप मेरा लिखा लिखा पसंद करते हैं तो इस लिखे के पीछे की बिताई गयी उन नाम शामों में से मुझे तलाश कर लाना होगा जब मैं अकेला था और उस दर्द को तनहाई को कागज पर उतार दिया था...

आपको आकर मेरी उन खुशियों में शरीक होना पड़ेगा जिन्हें बांटने के लिए मेरा पास कभी कोई न था.... 

तकिये में सर गोतकर बिताई गयी उन भींगी रातों का हिसाब तो मैंने नहीं मांगा और न ही दोबारा उस आवाज़ का साया मांग रहा हूँ जिसके सहारे नींद के आगोश में चला गया था,
लेकिन कभी जानिए के ये सब कुछ लिखता हुआ शक्स भी आपकी तरह ही है...

आपके दिमाग में उमड़ती-घुमड़ती कुछ बेवजह की बातों को शब्दों की लकीरों में यहाँ उतार रहा हूँ....

मैं दरअसल मैं नहीं,
आपका स्वयं हूँ...
आप खुद को ही यहाँ पढ़ते हैं....