शनिवार, 11 फ़रवरी 2017

वो लम्हें जो याद न हों......

वो पहली बार,
जब माँ ने गले से लगाया,
वो लम्हा जब पापा ने गोद में उठाया,
वो पहली मासूम सी हँसी,
वो पहली नींद की झपकी,
दादी की प्यार भरी पप्पी,
वो पहले लड़खड़ाते से कदम,
वो अनबुझ पहेली सा बचपन...

ढेर सारे खिलौने, गुड्डों और गुड़ियों की दुनिया,
स्कूल में वो पहला दिन,
वो प्यारे पलछिन,
और भी ऐसा बहुत कुछ......

इस ज़िन्दगी की आपाधापी से,
इन वाहनों के शोर से,
कहीं दूर,
कहीं एकांत में,
आओ बैठें,
समेटे उन लम्हों को,
वो लम्हे जो बीत गए....वो लम्हें जो याद न हों......

मंगलवार, 7 फ़रवरी 2017

ज़िंदगी...का तसव्वुर

मेरा लिखा पढ़ना और आपका यहाँ यूं होना  किसी संयोग से कम नहीं...

इस 7 अरब की दुनिया में आप मुझे ही  क्यूँ पढ़ना चाहते हैं,
ऐसा क्या है यहाँ...

यहाँ तो सबकी ज़िंदगी ही एक कहानी है,
अपनी कहानियों से इतर दूसरों की कहानियों में इतनी दिलचस्पी क्यूँ भला...

50 करोड़ स्क्वायर किलोमीटर की इस धरती पर मुश्किल से 20 स्क्वायर फीट की जगह घेरा एक इंसान कंप्यूटर पर बैठा कुछ खिटिर-पिटिर कर रहा है,
अपनी ज़िंदगी के पन्नों को उलट पुलट कर देख रहा है,
उसे इस इन्टरनेट की दीवार पर बैठे बैठे झांकना क्यूँ पसंद है आपको...

यहाँ तो आलम ये है कि मेरे घर का आईना भी मेरी शक्ल से ऊब सा गया लगता है,
दीवारों की सीलन भी आंसुओं के रंग में नहाई लगती है...

मेरे कमरे तक आने वाली सीढ़ियाँ हर रोज़ संकरी सी होती जाती हैं,
जैसे किसी दिन बस यहीं कैद कर लेंगी मुझे...

ज़िंदगी एक नदी है,
अपनी नाव उतार दीजिये...

अगर आपको लगता है मैं कुछ अच्छा लिखता हूँ या अलग लिखता हूँ तो ये आपका भ्रम मात्र है,

मैं यहाँ एक मुखौटा सा लगा कर बैठा हूँ....

इस ब्लॉग पर पड़ी एक परत सी है,
कभी जो हो सके तो इस परत को उघाड़ कर इसके अंदर बैठे मेरे स्वयं को देखने की कोशिश कीजिएगा....

मैं भी आपका ही अक्स हूँ जो आपकी ही तरह लड़ रहा है ज़िंदगी से,
कोयले की सिगड़ी पर ज़िंदगी को सेक कर कुछ लज़ीज़ बनाने की जुगत में है....

अब कहीं ऐसा न समझ लीजिएगा मैं किसी अवसाद में हूँ, मैं तो पूरी तरह से ज़िंदगी में हूँ... डूबा हुआ...

ज़ोर से सांस भी लेता हूँ तो ज़िंदगी दौड़ी मेरी बाहों में सिमट आती है...

ज़िंदगी को आप कसी ड्राफ्ट में सेव करके नहीं रख सकते,
किसी EMI स्कीम से खरीद नहीं सकते...

बस इसकी आँखों में आँखें डालकर इसका लुत्फ उठा सकते हैं....

किसी बच्चे का सीक्रेट झोला देखा है आपने कभी,
उसमे वो हर कुछ डालता जाता है जो उसे अलग लगती है,
सड़क के किनारे पड़े किसी गोल चिकने पत्थर को भी उसी मोहब्बत से देखता है जैसे उसी में उसकी ज़िंदगी बसी हो...

बस यही तो है हमारी-आपकी ये ज़िंदगी भी, जो भी पसंद आता समेटते जाते हैं,
कई चीजों का कोई मोल नहीं होता...

बस यूंही खुद की खुशी के लिए,
खुद के साथ के लिए....

अगर आप मेरा लिखा लिखा पसंद करते हैं तो इस लिखे के पीछे की बिताई गयी उन नाम शामों में से मुझे तलाश कर लाना होगा जब मैं अकेला था और उस दर्द को तनहाई को कागज पर उतार दिया था...

आपको आकर मेरी उन खुशियों में शरीक होना पड़ेगा जिन्हें बांटने के लिए मेरा पास कभी कोई न था.... 

तकिये में सर गोतकर बिताई गयी उन भींगी रातों का हिसाब तो मैंने नहीं मांगा और न ही दोबारा उस आवाज़ का साया मांग रहा हूँ जिसके सहारे नींद के आगोश में चला गया था,
लेकिन कभी जानिए के ये सब कुछ लिखता हुआ शक्स भी आपकी तरह ही है...

आपके दिमाग में उमड़ती-घुमड़ती कुछ बेवजह की बातों को शब्दों की लकीरों में यहाँ उतार रहा हूँ....

मैं दरअसल मैं नहीं,
आपका स्वयं हूँ...
आप खुद को ही यहाँ पढ़ते हैं....

यु ही बेवजह...

एक गुलाबी सा शहर है उसकी उल्टी-पुल्टी सड़कों पर सपनों मे बेवजह की रेत लिखता हूँ और उड़ा देता हूँ हर सुबह...

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आड़े-तिरछे खयालों में ज़िंदगी के झरोखों से कुछ नीली धूप आ जाती है,
उस धूप में पका देता हूँ अपने आप को....

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डूबते सूरज के पीछेएक लंबी कतार देखता हूँ ये भीड़ अगर थोड़ी जगह मुझे भी दे तो एक प्याला नारंगी रंग मैं भी कैद कर लूँ...

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कुछ-एक साल पहले इक अनजानी सड़क के नो-पार्किंग के बोर्ड के नीचे अपने कुछ सपने पार्क कर दिये थे,
इसके जुर्माने में अपनी पूरी ज़िंदगी चुका कर आया हूँ....

सोमवार, 6 फ़रवरी 2017

कोई भी नज़्म तुमसे बेहतर तो नहीं....

हो जाने दो तितर-बितर इन आढ़े-तिरछे दिनों को,
चाहे कितनी भी आँधी आ जाये,
आज भी तुम्हारी मुस्कान का मौसम मैं अपने दिल में लिए फिरता हूँ...

तुम्हारे शब्द छलकते क्यूँ नहीं अगर तुम यूं ही रही तो तुम्हारी खामोशी के टुकड़ों को अपनी बातों के कटोरे में भर के ज़ोर से खनखना देना है एक बार...

ये इश्क भी न,
कभी पूरा नहीं होता हमेशा चौथाई भर बाकी बचा रह जाता है,
अपनी ज़िंदगी की इस दाल में उस चाँद के कल  छुल से तुम्हारे  प्यार की छौंक लगा दूँ तो खुशबू  फैल उठेगी हर ओर और वो चौथाई भर इश्क रूह में उतर आएगा.....

गर जो तुम्हें लगे कभी कि मैं शब्दों से खेलता भर हूँ तो मेरी आँखों में झांक लेना,
लफ़्ज़ और जज़बातों से इतर तुम्हें मेरा प्यार भी मयस्सर है.

मुझे अपना समंदर चुनने की आज़ादी तो है न...

अच्छा लिखने की पहचान शायद यही होती होगी कि किस तरह छोटे छोटे पहलुओं को एक धागे में पिरो कर सामने रखा जाये...

मैं पिछले कई दिनों से कितना कुछ लिखता हूँ,
जब भी मौका मिलता है शब्दों की एक छोटी सी गांठ बना कर रख देता हूँ,
लेकिन इन गाठों को फिर एक साथ बुन नहीं पाता,
दिमाग और दिल के चरखे इन  गांठ लगे शब्दों को संभाल नहीं पाते....

कई-कई ड्राफ्ट पड़े रहते हैं बिखरे बिखरे से....
शायद अच्छी ज़िंदगी भी इसी तरह बनती होगी न,
छोटे-छोटे रिश्तों और खुशियों को आपस में पिरोकर !!!
लेकिन मैं तो वो भी नहीं कर पाता,
किसी को भी ज़िंदगी के धागे में पिरोने से डर लगता है,
शायद वो इस बेढब खांचे में फिट न हो तो...

एक अकेले कोने में यूं बैठा गाने सुनते रहना चाहता हूँ,
सोचता हूँ,
ज़िंदगी यूं ही निकल जाये तो कितना बेहतर है....
ज़िंदगी के कई सिमटे-सिकुड़े जज़्बात हैं जो यूं कह नहीं सकता...
  अलबत्ता शब्दों की कई गाठें बिखरी पड़ी थीं, लाख कोशिश की पर जोड़ न सका तो कुछ को यूं ही रैंडमली चुन के उठा लाया हूँ....

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गरीबी सिर्फ सड़कों पर नहीं सोती,
कुछ लोग दिल के भी गरीब होते हैं
अक्सर उनके बिना छत के मकानों में आसमां से दर्द टपकता है....

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हर सुबह एक बेरहम बुलडोजर आता है,
सपनों के बाग को रेगिस्तान बना जाता है...

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सुन ए सूरज,
थोड़ा आलस दिखा देना इस बरस तेरे आगे आने वाले कोहरे में गुम हो जाना है सदा-सदा के लिए...

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यहाँ हर किसी की अपनी व्यथाएँ हैं
तभी शायद सभी को दूसरों का रोना शोर लगता है....

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कुछ कहानियाँ मैं बिना पढे ही बीच में अधूरा छोड़ आता हूँ,
कुछ चीजें अधूरी ही बड़ा सुख देती हैं....

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जाने क्यूँ आज कांप रहे हैं हाथ मेरे,
तुम्हारे सपनों के बागडरा से रहे हैं मुझे,
कैसे इन रंग-बिरंगे सपनों पर मैं अपने गंदले रंग के खंडहर लिख दूँ...

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मैंने तुम्हारे समंदर भी देखे हैं,
नीले रंग के दूर-दूर तक फैले हुये,
कई लहरें आती हैं उमड़ती हुयी और किनारों पर आकर लौट जाती हैं....

एक समंदर और है मेरे अंदर कहीं,
जो हर लम्हा हिलोरे मारता है,
उसका कोई किनारा नहीं,
उसकी सारी नमकीन लहरें मैं भारी मन से पी जाया करता हूँ,
मुझे अपना समंदर चुनने की आज़ादी तो है न...

रंग बदलते रहते हैं....

मुद्दतों बाद ज़िंदगी की किताब के कुछ पन्ने तिल मिला से रहे हैं...

कहते हैं आप अपने दर्द को कितना भी जला दें उसका धुआँ साथ ही चलता रहता है,
कभी भी घुटन पैदा कर सकता है...
ज्यादा वक़्त नहीं गुज़रा है जब गाढ़ी रूमानियत में डूबे कुछ लफ्ज रोपता रहता था सूखी पड़ी अलमारियों पे...

यूं डूब कर लिखना तब शुरू किया था जब मेरी किताब के कुछ पन्ने हमेशा-हमेशा के फाड़ दिये थे तुमने....

न जाने तुम्हारे लिए कैसे इतना आसान हो गया, यूं मुँह फेर लेना...

न कुछ समझ आया और न ही तुमसे कोई जवाब ही मांगा आज तक,
कई सालों तक मेरे कमरे की अधखुली अलमारी में से वो तोहफा झाँकता रहा जो खरीद रखा था किसी खासदिन के लिए...

एक दिन यूं ही जब नाहन* की नारंगी शामों के साये में मेरे मकान के पास वाले नुक्कड़ पर कभी एक पहाड़ी गीत सुन लिया था,
समझ तो कुछ नहीं आया लेकिन इतना दर्द जैसे कोई बादल फट पड़ा हो किसी अंजान खाई के ऊपर...

बर्फ की चादर पर कई सारी यादें तना दर तना उखड़ती चली गईं...

वक़्त अब बीत चुका है,
मैं बहुत आगे निकल आया और शायद तुम भी...

हाँ कुछ लम्हों से आज भी कुछ यादें झरती रहती हैं,
लेकिन सच बताऊँ तो विश्वास नहीं होता कि कभी तुम्हारे जैसा भी कोई था मेरी ज़िंदगी में...

अच्छा ही हुआ तुमने उतार लिया अपने अस्तित्व का बोझ मुझपर से...

आज जब कनखियों से अपनी ज़िंदगी को देखता हूँ तो तुम कहीं नज़र नहीं आती,
बस एक चेहरा दिखता है जिसने अचानक से आकर ज़िंदगी को करीने से सज़ा दिया है... तुम्हें पता है हम अक्सर छोटी-छोटी बातों पर झगड़ते रहते हैं,
बिना मतलब ही यूं ही...

लेकिन इसी झगड़े के बीच हमारा प्यार बूंद-बूंद पनपता रहता है,
हथेलियों से समेटने की कोई कोशिश नहीं...

मुस्कुराहटें आती रहती हैं और इसबार उन मुस्कुराहटों का रंग अलग सा दिखता है...
मैं खुश हूँ सच में बहुत खुश...

जब भी गौर से उसकी आखों में देखूँ न तो बस लगता है मानो कह रही हों....
मुझे तुमसे प्यार है....शायद यही ज़िंदगी है...
शुक्रिया ज़िंदगी....

शुक्रिया मुझे यूं जगाए रखने के लिए, मेरी दुआओं को हर उस जगह पहुंचाते रहना जहां से मेरे लिए दुआएं निकलती रहती हैं....

एक खाली सा दिन...

मैं अब कोरे कागज को,
कोरा ही छोड़ देता हूँ
तुम्हारी फिक्र और कुछ खयाल ड्राफ्ट में सेव कर छोड़े हैं...

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मैंने देखा था उसके आखिरी समय में उसे उसकी आवाज़ उसका शरीर छोड़ दे रही थी...

आज सुबह उसकी रूह ने,
आवाज़ लगाई है मेरे सपनों में रूह से भला उसकी आवाज़ को कौन जुदा कर पाया है आज तक..

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ज़िंदगी के रंग को जाना है कभी,
कभी देखी हैउन गुलाबी-पीले फूलों के चारो ओर लगी लोहे के कांटे वाली नुकीली बाड़...

आसमां और हथेलियाँ...

ये आसमां इतना विशाल है
बिल्कुल अनंत लेकिन उसमे,
मुझे बस शून्य दिखता है बहुत बड़ा शून्य जैसे किसी ने एक बहुत बड़े घूमते कटोरे को पलट कर रख दिया हो...

बस ऊपर सब चक्कर खाते हुये दिखाई देते हैं,कभी सूरज,
कभी चाँद तो कभी बादल,
कोई नहीं रुकता मेरे लिए जैसे सब ढूँढते रहते हैं कटोरे का छोर...

फिर अचानक से तुम दिखती हो हथेलियों से अपना चेहरा ढाँपे हुये,
तुम्हारी हथेलियों को सीधा करता हूँ तो महसूस होता है जैसे ये छोटे-छोटे हाथों की लकीरें पकड़ के बैठी हैं मेरा वजूद जैसे तुम थमी हुयी हो मेरे भटकाव-मेरी बेचैनी को पकड़कर,
कान लगा कर सुनो तो उन हथेलियों से,
सुनाई देती है मेरी हर सांस की आवाज़ें...

कुछ त्योहार सालो भर भी तो होने चाहिए न !!!!

चाहे जेठ की दुपहरी हो या फिर पूस की रात सावन की बारिश में भीगते हुये भी इंतज़ार बैठा रहता था ओसारे पर,

दरख्तों पर ,एक झलक माँ की,
लौटा देती थी हलक में जान फिर से...
कई त्योहार आते हैं-बीत जाते हैं, कुछ पल देते हैं याद रखने को और दिये जाते है साल भर का इंतज़ार....

तुमसे मिलना भी अब बस एक त्योहार ही है माँ साल में एक बार ही आता है, कुछ देर ही ठहरता है, ज्यादा देर नहीं....

इन सादे लफ्जों में,कुछ-एक त्योहार और मांगता हूँ, कुछ त्योहार सालो भर भी तो होने चाहिए न !!!!

याद तुम्हारी रुकी हुयी है...

कागज़ के उस मुड़े-तुड़े पन्ने पर याद तुम्हारी रुकी हुयी है....
न तुमसे मोहब्बत है,
न ही कोई गिला रहा अब,
फिर भी न जाने क्यूँ नमी तुम्हारे नाम की अब भी मेरी आखों में रुकी हुयी है....

कुछ दरका, कुछ टूटा जैसे दिल का जैसे सुकून गया था,
माज़ी की उस मैली चादर पे खुशबू उस शाम की अब भी इन साँसो पे रुकी हुयी है...

जलाए कितने पन्ने अपनी कहानियों के लेकिन,
वो कसक तेरे अब न होने की,
कितनी नज़मों मे रुकी हुयी है...

कागज़ के उस मुड़े-तुड़े पन्ने पर याद तुम्हारी रुकी हुयी है....

इस तन्हा शाम का विलोम तुम हो...

इन पेचीदा दिनों के बीच,
आजकल बिना खबर किए हीअचानक से सूरज ढल जाता है,

नारंगी आसमां भी बेरंग पड़ा है इन दिनों...इन पतली पगडंडी सी शामों मेंजब भी छू जाती है तुम्हारी याद मैं दूर छिटक कर खड़ा हो जाता हूँ...क्या करूँ तुम्हारे यहाँ न होने का एहसास ऐसा ही है जैसे,

खुल गयी हो नींद केवल बारह मिनट की झपकी के बाद,
इस बारह मिनट में मैंतीन रेगिस्तान पार कर आता हूँ,रेगिस्तान भी कमबख्त पानी के रंग का दिखता है...तुम्हारी याद भी एक जादू है,

शउन नीले रेगिस्तानों में मटमैले रंग के बादल चलते हैं....इससे पहले कि इसे  पढ़ कर तुम मुझे बावरा मान लो,
चलो इस शाम का विलोम निकाल कर देख लेते हैं,
इस बारह मिनट की झपकी के बदले तुम्हारी गोद में मिले सुकून की नींद जहां बह रहे हैं ये तीन नीले रेगिस्तान वहाँ झील हो तुम्हारे आँखों कीऔर इन मटमैले बादलों के बदले तुम्हारी उन काली ज़ुल्फों का घेरा हो...इस तन्हा शाम का विलोम बस तुम हो...आ जाओ कि,
ज़िंदगी फिर उसी लम्हे से शुरू करनी है जहां तुम इसे छोड़ कर चली गयी हो...अब ये मत कहना किये नज़्म मुकम्मल नहीं,
आखिर तुम्हारे बिना कुछ भी पूरा कहाँ हो पाया है आज तक....

वो लम्हें शायद याद ना हो...

वो पहली बार,
जब माँ  ने गले से लगाया,
वो लम्हा जब पापा ने गोद में उठाया,
वो पहली मासूम सी हँसी,
वो पहली नींद की झपकी,
दादी की प्यार भरी पप्पी,
वो पहले लड़खड़ाते से कदम,
वो अनबुझ पहेली सा बचपन...ढेर सारे खिलौने,
गुड्डों और गुड़ियों की दुनिया,
स्कूल में वो पहला दिन,
वो प्यारे पलछिन,
और भी ऐसा बहुत कुछ......इस ज़िन्दगी की आपाधापी से,
इन वाहनों के शोर से,
कहीं दूर, कहीं एकांत में,
आओ बैठें, समेटे उन लम्हों को,
वो लम्हे जो बीत गए....वो लम्हें जो शायद याद न हों......