मेरा लिखा पढ़ना और आपका यहाँ यूं होना किसी संयोग से कम नहीं...
इस 7 अरब की दुनिया में आप मुझे ही क्यूँ पढ़ना चाहते हैं,
ऐसा क्या है यहाँ...
यहाँ तो सबकी ज़िंदगी ही एक कहानी है,
अपनी कहानियों से इतर दूसरों की कहानियों में इतनी दिलचस्पी क्यूँ भला...
50 करोड़ स्क्वायर किलोमीटर की इस धरती पर मुश्किल से 20 स्क्वायर फीट की जगह घेरा एक इंसान कंप्यूटर पर बैठा कुछ खिटिर-पिटिर कर रहा है,
अपनी ज़िंदगी के पन्नों को उलट पुलट कर देख रहा है,
उसे इस इन्टरनेट की दीवार पर बैठे बैठे झांकना क्यूँ पसंद है आपको...
यहाँ तो आलम ये है कि मेरे घर का आईना भी मेरी शक्ल से ऊब सा गया लगता है,
दीवारों की सीलन भी आंसुओं के रंग में नहाई लगती है...
मेरे कमरे तक आने वाली सीढ़ियाँ हर रोज़ संकरी सी होती जाती हैं,
जैसे किसी दिन बस यहीं कैद कर लेंगी मुझे...
ज़िंदगी एक नदी है,
अपनी नाव उतार दीजिये...
अगर आपको लगता है मैं कुछ अच्छा लिखता हूँ या अलग लिखता हूँ तो ये आपका भ्रम मात्र है,
मैं यहाँ एक मुखौटा सा लगा कर बैठा हूँ....
इस ब्लॉग पर पड़ी एक परत सी है,
कभी जो हो सके तो इस परत को उघाड़ कर इसके अंदर बैठे मेरे स्वयं को देखने की कोशिश कीजिएगा....
मैं भी आपका ही अक्स हूँ जो आपकी ही तरह लड़ रहा है ज़िंदगी से,
कोयले की सिगड़ी पर ज़िंदगी को सेक कर कुछ लज़ीज़ बनाने की जुगत में है....
अब कहीं ऐसा न समझ लीजिएगा मैं किसी अवसाद में हूँ, मैं तो पूरी तरह से ज़िंदगी में हूँ... डूबा हुआ...
ज़ोर से सांस भी लेता हूँ तो ज़िंदगी दौड़ी मेरी बाहों में सिमट आती है...
ज़िंदगी को आप कसी ड्राफ्ट में सेव करके नहीं रख सकते,
किसी EMI स्कीम से खरीद नहीं सकते...
बस इसकी आँखों में आँखें डालकर इसका लुत्फ उठा सकते हैं....
किसी बच्चे का सीक्रेट झोला देखा है आपने कभी,
उसमे वो हर कुछ डालता जाता है जो उसे अलग लगती है,
सड़क के किनारे पड़े किसी गोल चिकने पत्थर को भी उसी मोहब्बत से देखता है जैसे उसी में उसकी ज़िंदगी बसी हो...
बस यही तो है हमारी-आपकी ये ज़िंदगी भी, जो भी पसंद आता समेटते जाते हैं,
कई चीजों का कोई मोल नहीं होता...
बस यूंही खुद की खुशी के लिए,
खुद के साथ के लिए....
अगर आप मेरा लिखा लिखा पसंद करते हैं तो इस लिखे के पीछे की बिताई गयी उन नाम शामों में से मुझे तलाश कर लाना होगा जब मैं अकेला था और उस दर्द को तनहाई को कागज पर उतार दिया था...
आपको आकर मेरी उन खुशियों में शरीक होना पड़ेगा जिन्हें बांटने के लिए मेरा पास कभी कोई न था....
तकिये में सर गोतकर बिताई गयी उन भींगी रातों का हिसाब तो मैंने नहीं मांगा और न ही दोबारा उस आवाज़ का साया मांग रहा हूँ जिसके सहारे नींद के आगोश में चला गया था,
लेकिन कभी जानिए के ये सब कुछ लिखता हुआ शक्स भी आपकी तरह ही है...
आपके दिमाग में उमड़ती-घुमड़ती कुछ बेवजह की बातों को शब्दों की लकीरों में यहाँ उतार रहा हूँ....
मैं दरअसल मैं नहीं,
आपका स्वयं हूँ...
आप खुद को ही यहाँ पढ़ते हैं....