मंगलवार, 5 सितंबर 2017

सायद, रद्दी जलाने के लिए ही होती है...

लिखना कभी भी मेरी प्राथमिकता नहीं रही है,
   मैं तो ढेर सारे लोगों से मिलना चाहता हूँ,
उनसे बातें करना चाहता हूँ...

उनके साथ नयी नयी जगहों पर जाना चाहता हूँ..
लेकिन जब कोई आस-पास नहीं होता तो बेबसी में कलम उठानी पड़ती है...
ये कागज के टुकड़े जिनपर मैं कुछ भी लिख कर भूल जाता हूँ,
मुझे बहुत बेजान दिखाई देते हैं...

जब मैं खुश होता हूँ तो वो मेरे गले नहीं मिलते,
जब आंसू की बूँदें बिखरना चाहती हैं ये कभी भी मुझे दिलासा नहीं दिलाते...
जो कुछ भी लिखता हूँ वो बस मेरा एकालाप है, जिसका मोल तभी तक है जब तक उसको लिख रहा हूँ...
उसके बाद वो मेरे किसी कामके नहीं...ऐसा लगता है जैसे डायरी लिखना मेरे लिए ज़िन्दगी से किया गया एक समझौता है...
जितनी ही बार कुछ लिखने की कोशिश की है उतनी ही बार खुद की हालत पे रोना आया है...

वो ऐसा वक्त होता है जब आसपास तन्हाईयाँ होती हैं,
जब सन्नाटे की आवाज़ कानो के परदे फाड़ डालना चाहती है,
एक अकेलापन जिससे मैं भागना चाहता हूँ...

ऐसे में खुद-ब-खुद कलम हाथ में आ जाती है... उस वक्त मैं अपने हाथ में कागज़ और कलम की छुअन महसूस करता हूँ,
शायद कुछ देर के लिए ही सही लेकिन उस एहसास में खुद के अकेलेपन को भूल जाता हूँ...
अकेला होना या खुद को अकेला महसूस करना इस बात पर निर्भर करता है कि आपकी ज़िन्दगी में कितने ऐसे दोस्त हैं जो वक्त-बेवक्त आपके पास चले आते हैं और वो सब कुछ जानना चाहते हैं जो कहीं न कहीं कोने में दबा बैठा है...

कितने लोग आपकी ज़िन्दगी में वो हक़ जता पाते हैं कि आपकी हर खुशियों को अपने ख़ुशी समझें और हर गम को अपना गम...

हर किसी की ज़िन्दगी में कुछ शख्स होते हैं जिनके बस साथ होने से आपको एक सुकून सा महसूस होता है...
दोस्ती का रिश्ता सबसे खूबसूरत सा रिश्ता है शायद,
जहाँ आप बिना कुछ सोचे बिना किसी झिझक के अपने मन की सारी बातेंकर सकते हैं...
दोस्ती से ज्यादा वाला रिश्ता तो कोई हो नहीं सकता लेकिन आज की इस भागदौड़ भरी ज़िन्दगी में कब दोस्त आगे बढ़ जाते हैं पता ही नहीं चलता...
कई बार ऐसा होता है कि जब आप ज़िन्दगी के किसी नाज़ुक दौर से गुज़र रहे हों और वो दोस्त आपके साथ नहीं होते...
खैर बात हो रही है इस रद्दी की जो मैं यूँ ही ज़मा करता जा रहा हूँ,
बीच बीच में कितनी ही बार इस रद्दी से दिखने वाले पन्नों को ज़ला दिया है मैंने, क्यूंकि ये मुझे किसी काम के नहीं लगते....वहां से मेरा अतीत झांकता है,
एक ऐसा अतीत जहाँ बहुत कम चीजें हैं याद रखने लायक... जो चीजें बीत गयीं उनको क्या याद रखना, उनको क्या पढना...
मेरा यूँ रह रह के डायरीजला देना कुछ लोगों को अच्छा नहीं लगता, लेकिन उनको समझाना बहुत मुश्किल है मेरे लिए...
मैं यूँ बिखरे हुए अतीत के कचरे के बीच नहीं रह सकता...
घुटन होती है, खुद पे गुस्सा आता है... जो बहुत ज्यादा अच्छी या बुरी बातें हैं वो तो पहले ही दिमाग और दिल की जड़ों में चस्प हो गयी हैं...

काश वहां से भी निकाल के फेक पाता उन बातों को...मुझे ये डायरी नहीं उन लोगों का साथ चाहिए जिनसे मैं बेइन्तहां  मोहब्बत करता हूँ...

अगर हो सके तो मुझे बस वो अपनापन चाहिए जिसके बिना किसी का भी जीना या जीने के बारे में सोचना भी बस एक समझौता है...